Metro Plus से नवीन गुप्ता की रिपोर्ट
Chandigarh, 1 August:
हरियाणा सरकार द्वारा Haryana Administrative Tribunal गठित करने के खिलाफ Punjab & Haryana High Court के वकीलों ने सरकार के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा रखा है। इस मामले में High Court के वकील गत् 24 जुलाई से हड़ताल पर हैं। उनकी इस हड़ताल के पीछे का कारण हरियाणा सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्बारा जारी किया गया वो नोटिफिकेशन है जिसके माध्यम से एक ट्रिब्यूनल का गठन करके हरियाणा के सभी सरकारी कर्मचारियों के मुकद्दमों के निपटारे का अधिकार HighCourt और निचली अदालतों से छीनकर उस Tribunal को दे दिया गया है। इस ट्रिब्यूनल के जज के तौर पर हाईकोर्ट की एक माननीय रिटायर्ड जज स्नेह पाराशर की नियुक्ति भी कर दी गई है।
अब जनता के मन में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर सरकार के इस निर्णय का विरोध वकील लॉबी क्यों कर रही हैं? इसमें गलत क्या है? क्या उन्हें यह मलाल है कि इससे हाईकोर्ट के वकीलों का काम छिन कर करनाल के वकीलों के पास चला जाएगा जहां यह Tribunal स्थापित किया जा रहा है?


इसमें कोई शक नहीं कि वकीलों के एक हिस्से का, चाहे वो Chandigarh के वकील हों या करनाल के, यह भी एक सरोकार हो सकता है। लेकिन वास्तव में यह मुद्दा वकीलों के रोजगार के सरोकार से कहीं बड़ा और संजीदा है। यह मुद्दा हमारी न्यायप्रणाली के बुनियादी उसूलों, उसकी स्वतन्त्रता, संविधान की मूल संरचना और नतीजतन आम जनता के हितों से सीधा जुड़ा हुआ है।
हम सब जानते हैं कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों का बंटवारा हमारे संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है। न्यायपालिका स्वतंत्र तौर पर काम करती है और उसके कार्य में कार्यपालिका कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। हाईकोर्ट के न्यायाधीश जो संविधानिक Authority हैं, ही नहीं बल्कि जिला और तहसील स्तर पर काम कर रहे न्यायाधीशों के काम में सरकार सीधे कोई दखल नहीं दे सकती। उनके तबादले तक का अधिकार केवल HighCourt के पास है, सरकार के पास नहीं। लेकिन इसके उल्ट ऐसे ट्रिब्यूनलों और Forms में बतौर जज रिटायर्ड जजों और सरकारी अधिकारियों को नियुक्त किया जाता है जो इन Services Judges के मुकाबले आधे स्वतन्त्र भी नहीं होते। इन नियुक्तियों में सरकार की पूरी दखलअंदाजी होती है। इसलिये रैगुलर अदालतों के अधिकार क्षेत्र से अलग-अलग प्रकार के विवादों को निकालकर एक के बाद दूसरे ट्रिब्यूनल और Forms गठित करने का यह रूझान बेहद खतरनाक है। ऐसे बहुत से फोर्म जो पहले से अस्तित्व में हैं उनमें से ज्यादातर की Performence पर जितना कम बोला जाए उतना ही ठीक है। Consumer Forms इसका एक उदाहरण हैं। सरकारी कर्मचारियों से संबंधित मामलों में तो विरोधी पक्ष शत-प्रतिशत खुद सरकार ही होती है। ऐसे में उनके विवादों को अदालतों से छीन कर ऐसे Tribunal को सौंप देना तो वैसे भी कहां की अक्लमंदी है?


इन Tribunals और Forms की बहुतायत से न्यायपालिका की स्वतंत्रता एक दूसरे तरीके से भी प्रभावित होती है। वो इस तरह कि रिटायरमेंट के बाद पद की लालसा में सरकार से नजदीकी की चाह कई इन सर्विस जजों के काम और स्वतन्त्रता को भी प्रभावित करने की क्षमता रखती है। इसके परिणाम और भी घातक हैं।

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